अन्याय के खिलाफ सदैव कलम की धार रखा तेज
ललितेश्वर कुमार, राष्ट्रीय महासचिव
राष्ट्र सृजन अभियान
खबरी नेशनल न्यूज नेटवर्क
सिवान । National Poet Dinkar समय की आने वाली पदचाप का स्पष्ट आभास रखने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में भाषा और भावों के ओज का अद्भुत संयोजन था। वह न तो उनके समकालीनों में था और न ही बाद की हिंदी कविता में देखने को मिलता है। अपनी कविता से राष्ट्र प्रेमियों को प्रेरणा देकर, उनके दिल और दिमाग को उद्वेलित कर झंकृत करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म मिथिला के पावन भूमि सिमरिया में हुआ था।
पांच साल की नौकरी में 22 बार हुआ तबादला
तत्कालीन मुंगेर (अब बेगूसराय) जिले की सुरसरि तटवर्तिनी सिमरिया के एक अत्यंत ही सामान्य किसान के घर में 23 सितंबर 2008 को जब अचानक सोहर के रस भरे छंद गूंजने लगे तब किसे पता था कि मनरूप देवी एवं रवि सिंह का यह द्वितीय पुत्र कभी राष्ट्रीय फलक पर ध्रुवतारा-सा चमकेगा। पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज पटना से 1932 में इतिहास से प्रतिष्ठा की डिग्री हासिल कर 1933 में बरबीघा उच्च विद्यालय के प्रधानाध्यापक पद पर तैनात हुए। अगले साल ही उन्हें निबंधन विभाग के अवर निबंधक के रूप में नियुक्त कर दिया गया। इस दौरान कविता का शौक जोर पकड़ चुका था, दिनकर उपनाम को ”हिमालय” और ”नई दिल्ली” से ख्याति भी मिलने लगी। लेकिन इस ख्याति का पुरस्कार मिला कि पांच साल की नौकरी में 22 बार तबादला हुआ।
दिनकर ब्रिटिश शासन काल के समय में भी अन्याय के विरुद्ध बोलने की शक्ति रखते थे
National Poet Dinkar दिनकर ब्रिटिश शासन काल में सरकारी नौकर थे, लेकिन नौकरी उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति में कभी बाधक नहीं बनी। वह उस समय भी अन्याय के विरुद्ध बोलने की शक्ति रखते थे और बाद में स्वाधीनता के समय भी सरकारी नौकरी करते समय हमेशा अनुचित बातों का डटकर विरोध करते रहे। 1943 से 1945 तक संगीत प्रचार अधिकारी तथा 1947 से 1950 तक बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में निदेशक के पद पर कार्यरत रहे। संविधान सभा बनने के बाद जब संविधान सभा का प्रथम निर्वाचन हुआ तो दिनकर जी को तेजस्वी वाणी, प्रेरक कविता एवं राष्ट्र प्रेरक कविता की धारणा के कारण कांग्रेस द्वारा राज्यसभा सदस्य मनोनीत कर दिया गया।
1963 से 1965 तक बेमन से ही सही लेकिन भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे तथा 1965 से 1972 तक भारत सरकार के हिंदी विभाग में सलाहकार
पहली बार 1952 से 58 तथा 1958 में फिर राज्यसभा सदस्य बनाए गए, लेकिन ललित नारायण मिश्र के अनुरोध पर उन्होंने 1963 में इस्तीफा दे दिया। 1963 से 1965 तक बेमन से ही सही लेकिन भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे तथा 1965 से 1972 तक भारत सरकार के हिंदी विभाग में सलाहकार का दायित्व निर्वहन करना पड़ा।
काव्यात्मक लेखनी को कागजों पर मर्मस्पर्शी तरीके से उकेरने की कलाँ में थे माहिर
राष्ट्रकवि दिनकर की कविता की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वह महाभारत के संजय की तरह दिव्यदृष्टि से प्रत्यक्षदर्शी के रूप में वेदना, संवेदना एवं अनुभूति के साक्षी बनकर काव्यात्मक लेखनी को कागजों पर मर्मस्पर्शी तरीके से उतारा करते थे। राष्ट्रकवि दिनकर की साहित्य रचना का प्रारंभ विजय संदेश से हुआ था, उसके बाद प्रणभंग तथा सबसे अंतिम कविता संग्रह 1971 में हारे को हरि नाम। कविता के धरातल पर बाल्मीकि, कालिदास, कबीर, इकबाल और नजरुल इस्लाम की गहरी प्रेरणा से राष्ट्र भक्त कवि बने। उन्हें राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रांति के नेता सभी ने माना। रेणुका, हुंकार, सामधेनी आदि कविता स्वतंत्रता सेनानियों के लिए बड़ा ही प्रेरक प्रेरक सिद्ध हुआ था। कोमल भावना की जो धरा रेणुका में प्रकट हुई थी, रसवंती में उन्हें सुविकसित उर्वशी के रूप में भुवन मोहिनी सिद्धि हुई।
दिनकर की उर्वशी हिंदी साहित्य का गौरव ग्रंथ
कहा जाता है कि दिनकर की उर्वशी हिंदी साहित्य का गौरव ग्रंथ है, धूप छांव, बापू, नील कुसुम, रश्मिरथी का भी जोर नहीं। राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रीय भावना का ज्वलंत स्वरूप परशुराम की प्रतीक्षा में युद्ध और शांति का द्वंद कुरुक्षेत्र में व्यक्त हो गया। संस्कृति के चार अध्याय जैसे विशाल ग्रंथ में भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाया। जो उनकी विलक्षण प्रतिभाओं का सजीव प्रमाण है।
संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखकर अपने को गौरवान्वित महसूस किया था। 1972 के ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान समारोह में उन्होंने कहा था कि ”मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं। इसलिए उजाले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है”। यानी निश्चित रूप से वह बनने वाला रंग है केसरिया। दिनकर सच्चे अर्थों में मां सरस्वती के उपासक और वरदपुत्र थे।
भारतीय लोकतंत्र वास्तविकता को उजागर करते हुए उनकी लेखनी कहती है ”दोस्ती ही है देख के डरो नहीं, कम्युनिस्ट कहते हैं चीन से लड़ो नहीं, चिंतन में सोशलिस्ट गर्क है, कम्युनिस्ट और कांग्रेस में क्या फर्क है, दीनदयाल की जनसंघी शुद्ध हैं, इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क्रुद्ध हैं”।
उन्होंने उर्वशी में कहा है ”मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी अपने समय का सूर्य हूं मैं”।दिनकर ने रुढ़िवादी जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए अपने खंड-काव्य परशुराम की प्रतीक्षा में लिखा है ”घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है, जिस पापी को गुण नहीं-गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहां मारा है।” दिनकर की प्रासंगिकता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उनका साम्राज्यवाद विरोध है। हिमालय में लिखते हैं ”रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्गधीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर”। क्योंकि दिनकर को शांति का समर्थक अर्जुन चाहिए था। रेणुका में लिखते हैं ”श्रृण शोधन के लिए दूध बेच बेच धन जोड़ेंगे, बूंद बूंद बेचेंगे अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे, शिशु मचलेंगे, दूध देख जननी उनको बहलाएगी”। हाहाकार के शीर्षक में ही है ”हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं, दूध-दूध वो वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं”। परशुराम की प्रतीक्षा का एनार्की 1962 के चीनी आक्रमण के बाद की भारतीय लोकतंत्र वास्तविकता को उजागर करते हुए कहती है ”दोस्ती ही है देख के डरो नहीं, कम्युनिस्ट कहते हैं चीन से लड़ो नहीं, चिंतन में सोशलिस्ट गर्क है, कम्युनिस्ट और कांग्रेस में क्या फर्क है, दीनदयाल की जनसंघी शुद्ध हैं, इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क्रुद्ध हैं”।
रश्मिरथी से दिनकर जी ने समाज को ललकारा है ”जाति जाति रटते वे ही, जिनकी पूंजी केवल पाखंड है
आजादी की वर्षगांठ पर भी 1950 में दिनकर जी ने राजनीति के दोमुंहेपन, जनविरोधी चेतना और भ्रष्टाचार की पोल खोल दिया था ”नेता का अब नाम नहीं ले, अंधेपन से काम नहीं ले, मंदिर का देवता, चोरबाजारी में पकड़ा जाता है”। रश्मिरथी से समाज को ललकारा है ”जाति जाति रटते वे ही, जिनकी पूंजी केवल पाखंड है। कुरुक्षेत्र में समतामूलक समाज के उपासक के रूप में लिखते हैं ”न्याय नहीं तब तक जबतक, सुख भाग न नर का समहो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।”
दिनकर जी की रचनाओं के अनुवाद विभिन्न भारतीय भाषाओं में तो व्यापक रूप से आए ही हैं। विदेशी भाषाओं में भी उनके अनुवाद हुए हैं। एक कविता संग्रह रूसी भाषा में अनुदित होकर मास्को से प्रकाशित हुआ तो दूसरा स्पेनी भाषा में दक्षिण अमेरिका के चाइल्ड में। कुरुक्षेत्र का तो कई अनुवाद कई भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होता रहा।
दिनकर आजीवन संघर्षरत रहे, साहित्य और राजनीति दोनों के बीच उनका मन रमता था। ज्ञानपीठ पुरस्कार दिनकर जी के जीवन में एक नई आशा का संचार लाया। लेकिन 24 अप्रैल 1974 की शाम गंगा की गोद में उत्पन्न सूर्य रुपी दिनकर अस्ताचल चले गए। राष्ट्रकवि दिनकर जी की जन्मभूमि को नमन करने के लिए आने वाले देश भर के कवि और साहित्यकार आज भी कहते हैं हमारे देश का हर युग, युवा पीढ़ी राष्ट्रकवि को सदा श्रद्धा एवं सम्मान सहित याद करती रहेगी।