डाक्टरों व ब्रांडेड दवा कंपनियों के बीच मोटे कमीशन के खेल में मरीजों को सस्ती दवा दिलाने की कोशिशें दम तोड़ती नजर आ रही हैं। सभी डाक्टरों को स्पष्ट निर्देश है कि वह पर्चे पर दवा के साल्ट को लिखेंगे उसके ब्रांड को नहीं, मगर यह आदेश सिर्फ हवा-हवाई साबित हो रहा है।

एक ऐसा प्रोडक्ट (दवाएं) जिसका उपयोग मजबूरी में किया जाता है, वो भी उस देश में यहां गरीबों की बड़ी गिनती मौजूद है।

लखनऊ।नकली दवा कारोबारियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान में अब नई रणनीति अपनाई गई है। बिल वाउचर के मिलान में कंपनी से दवा निकलने के बाद एजेंसी, थोक और फुटकर विक्रेता तक पहुंचने में मूल्य और कमीशन के बीच कितना अंतर रहता है, यह भी देखा जाएगा। तीनों के बैच नंबर का भी मिलान किया जाएगा। ज्यादा कमीशन देने वालों को जांच के दायरे में लाया जाएगा।
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नये तरीके से जांंच में देखा जायेगा कि खरीद व बिक्री में है कितना अंतर

प्रदेश में करीब 72 हजार थोक एवं 1.05 लाख फुटकर दवा कारोबारी हैं। इस बीच बड़ी संख्या में नकली दवाओं की खपत का मामला सामने आया है। विभिन्न स्थानों पर पकड़े गए लोगों से हुई पूछताछ के आधार पर खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग (एफएसडीए) ने जांच अभियान छेड़ा है। जांच में अब तक खरीद और बिक्री संबंधी बिल के मिलान के बाद खरीद प्रक्रिया को असली मान लिया जाता था, लेकिन अब तय किया गया है कि बिल के मिलान के दौरान यह भी देखा जाएगा कि खरीद-बिक्री के बीच का अंतर कितना है।

ब्रांडेड कम्पनियों की दवाइयां आम ताैर पर मिलती है 28 फीसदी कम कीमत पर

दवा पर दर्ज मूल्य की अपेक्षा थोक विक्रेता कितने अंतर पर फुटकर विक्रेता को दवा उपलब्ध करा रहा है। ब्रांडेड कंपनियों की दवा सामान्य तौर पर फुटकर दवा विक्रेता को उस पर लिखे मूल्य से करीब 28 फीसदी कम कीमत पर मिलती हैं। कुछ में यह अंतर इससे ज्यादा तो कुछ में कम होता है। इसके अलावा एजेंसी से थोक कारोबारी के लिए अलग से ट्रेड मूल्य तय होता है। ऐसे में एफएसडीए अब कंपनी की ओर से निर्धारित ट्रेड मूल्य की भी जांच करेगा।

संदेह के दायरे में होने पर कराई जायेगी जांच

एजेंसी, थोक कारोबारी और फुटकर के बीच अंतर का आकलन करने के बाद संबंधित कंपनी को रिपोर्ट भेजकर उसका सत्यापन भी कराएगा। इस बीच थोक और फुटकर के बीच किसी बिल पर ज्यादा अंतर मिला तो उसका भी सत्यापन कराया जाएगा। ऐसे लोगों को संदेह के दायरे में लेकर जांच की जाएगी।

दवाएं नकली पर्चे पर भी ‚नकली कारोबारी तू डाल – डाल मैं पात – पात

निजी अस्पतालों के डॉक्टर खुद के नाम पर मरीजों के लिए कंपनी से सीधे दवा मंगवाते हैं। यह दवा ट्रेड मूल्य पर मिलती है। दवा पर लिखे गए मूल्य से यह करीब 30 से 40 फीसदी तक सस्ती होती हैं। पिछले दिनों लखनऊ आई कटक (ओडिशा) की टीम ने यहां की स्थानीय टीम के साथ कई बातें शेयर की हैं। इसमें यह भी बताया गया है कि वहां के कई अस्पतालों के डॉक्टर दवाएं मंगवाते हैं और उसे बाजार में पहुंचा देते हैं। यही दवाएं नकली पर्चे पर भी बिकती हैं। इस इनपुट के आधार पर अब विभिन्न निजी अस्पतालों में भी एफएसडीए की टीम जांच शुरू करने की तैयारी में है।

कमीशन का खेल: डाक्टरों व दवा कंपनियों की सांठगांठ से दम तोड़ रहे सस्ती दवा के केंद्र, डाक्टर भी नहीं ल‍िखते जेनेरिक दवाएं

जानिए जेनेरिक और ब्रांडेड दवाइयों में ऐसा क्या अंतर हैं 

जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं में अंतर को लेकर भारत में आज भी लोगों में जागरूकता भी बेहद कमी हैं, ना सिर्फ अशिक्षित लोगों में, बल्कि शिक्षित लोगों में भी।जिसका फायदा कुछ स्मार्ट लोग (दवा कंपनियां, विक्रेता और डॉक्टर) खूब उठा रहे हैं।क्या होती है जेनेरिक दवाएं?

  • जेनेरिक दवाओं का बनाने का फॉर्मूला भी वही होता है, जो ब्रांडेड मेडिसिन का होता है। यानी एक ही केमिकल साल्ट से दोनों दवाएं बनती हैं।जेनेरिक मेडिसिन, बड़ी कंपनियों के ब्रांडेड मेडिसिन पेटेंट के खत्म होने के बाद ही, छोटी कंपनियों के द्वारा बनाई जाती है।एक ही कंपनी ब्रांडेड और जेनेरिक दोनों प्रकार की दवाओं का निर्माण कर सकती हैं।जेनेरिक दवाओं पर कंपनी अपना नाम नहीं लिखती, वो दवाई अपने साल्ट के नाम के अनुसार जानी जाती है।
  • जैसे:दर्द और बुखार केलिए पैरासिटामोल एक जेनेरिक मेडिसिन है तो वहीं क्रोसिन एक ब्रांडेड मेडिसिन हैं।पर एक जैसे साल्ट होने के बावजूद, ब्रांडेड मेडिसिन महंगी क्यों होती हैं?क्योंकि ब्रांडेड मेडिसिन के महंगे होने का कारण, बढ़िया पैकिंग, सप्लाई, मार्केटिंग और इस पर डॉक्टरों को जाने वाला कमीशन होता है।जिस कारण दोनों की कीमतों में बड़ा अंतर होता है, जब कि दोनों ही दर्द और बुखार में एक बराबर कारगर हैं।पर दोनों प्रकार की कीमतों में बड़ा अंतर निम्नलिखित सारणी में देखें:

जेनेरिक दवाई यहां सस्ती होती है, पर इसके प्रिंट कीमतों और वास्तविक कीमतों में भी बड़ी जालसाजी

अब जेनेरिक दवाई यहां सस्ती होती है, पर इसके प्रिंट कीमतों और वास्तविक कीमतों में भी बड़ी जालसाजी होती है। वहां पर भी मरीजों को सावधान रहने की आवश्कता है। क्योंकि कुछ जेनेरिक दवाओं पर ब्रांडेड दवाओं से भी ज्यादा कीमत वसूल की जाती है।

एक जेनेरिक मेडिसिन की एमआरपी और वास्तविक कीमत में बड़ा अंतर हो सकता है। 4–5 रूपिये की कीमत की जेनेरिक मेडिसिन को 35–40 रूपये की प्रिंट कीमत (एमआरपी) में भी आराम से बेचा जाता है और खरीददारों को लूटा जाता है।

आखिर क्यों डाक्टर नही लिखते जेनेरिक दवाइयां ǃ

क्योंकि डॉक्टरों को जेनेरक दवाओं पर ब्रांडेड जितना मोटा कमीशन नहीं। तो वो जेनेरिक मेडिसिन क्यों लिखेंगे?कुछ मुट्ठी भर ईमानदार डॉक्टर इसके अपवाद अवश्य हो सकते हैं।

उपर से 874 कीमतों पर सरकारी नियंत्रण वाली दवाओं को छोड़ दें तो बाकी दवाओं पर कम्पनी मन मर्जी की कीमत पर दवाओं को बेच रही है।वहां पर दवाओं पर भारी मुनाफा (मैं तो लूट कहूंगा) कमाना कहां तक जायज है?

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पर इस गौरख धंधे में गरीब मरीजों का निकल रहा कचूमर

आप यकीन करें, कई दवाओं पर लागत का 500 यां 100 गुना तक वसूला जाता है और लोकतंत्री सरकारें इसको लेकर कुंभकर्णी नींद सोई रहती हैं।

जिस कारण किसी जागुरिक मरीज के द्वारा डॉक्टर को जेनेरिक दवाओं लिखने पर डॉक्टर भी इसके कारगर ना होने का तर्क दे कर महंगी ब्रांडेड दवाई लिखते हैं, लिखते भी वो हैं, जिन पर डॉक्टर को मोटा कमीशन मिलना तह हो।

सरकार और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया कई बार चेतावनी जारी कर चुके हैं कि डॉक्टर ज्यादा से ज्यादा जेनेरिक दवाएं ही लिख कर दें।पर ऐसा होता हुआ अभी तक नजर नहीं आ रहा।