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  • मां बेटी गवनहर बाप-पूत बराती
  • संस्कारों की गरीबी में अध्यक्ष मंत्री मंच पर बैठके हो गए टँच : अतिथि जी बैठे भूमि पर जैसे बैठे रंक
  • दीए जलते हैं पर दिल मिलते नहीं : हालात ऐसी की खुशियों के गुल खिलते नहीं
  • अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह कर देई’ मुहावरे का दृश्य

सलील पांडेय

खबरी पोस्ट नेशनल न्यूज नेटवर्क

मिर्जापुर। साल भर आने वाले त्योहारों का भी अपना संस्कार होता है। कोई त्योहार ज्ञान का संस्कार लेकर आता है तो कोई आचरण सिखाता नजर आता है। इसी में ज्ञान और संस्कार की कार्यशाला लगाता है दीपावली का त्योहार। संस्कारों की इसी पन्द्रह दिवसीय कार्यशाला के अंतिम दिन देव-दीवाली का उत्सव इसी लिए आता है ताकि संस्कारों के दीप जल उठे और आचार- विचार देवत्व की ओर अग्रसरित हो सके।

पर दीयों से ज्ञान नहीं केवल मजा लिया जाता है

भगवान का एक मज़ाक बहुत प्रचलित है कि जन्म के समय भगवान कान में कह देते हैं कि ‘तुम-सा धरती पर किसी को नहीं भेजा’। बस यही से गफलत शुरू हो जाती हैं। हालांकि मां के गर्भ में मिले सदाचार का ज्ञान संसार में काम नहीं आता, इसलिए जन्म के समय बच्चा रोता भी है कि जिस दुनियां में जा रहा हूं वहां तो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ बनकर रहना है। बहुत से गर्भ का संस्कार भूल कर अहंकार में डूबे रहते हैं परन्त बहुत से लोग संस्कारों के जरिए अहंकार का भाव त्याग भी देते हैं।

देव-दीवाली पर निकला संस्कारों का दीवाला

रविवार, 26 नबम्बर की शाम कार्तिक पूर्णिमा के नाम थी। इस दिन मंदिरों, घाटों पर ही नहीं बल्कि दिलों में भी दीए जलाने का पर्व था। पर दीए सजाए तो गए लेकिन दीयों के जलाने का संस्कार जिन्हें नहीं आता वे जला भी न पाए।

अध्यक्ष, मंत्री मंच पर ही टँच!

कला, गीत-संगीत, कविता आदि के क्षेत्र के फ़नकारों के लिए नगर में एक कार्यक्रम हुआ। फ़नकारों का मामला था तो ‘फन-स्थल’ की जरूरत थी। उसी जगह संस्कारों के कर्ताओं-धर्ताओं ने संस्कारों को ऐसा फन मारा कि कुछेक के उस जहर को झेल न पाए ।

हुआ यह कि

कार्यक्रम में बुला लिया सीनियर सिटीजन लेविल के लोगों को। पहुंच भी गए ऐसे लोग। वहां पहुंचे तो नज़ारा भी कम मजेदार नहीं था?

‘मां-बेटी गवनहर बाप-पूत बराती’ के जलसे जैसा

यह मुहावरा उसके लिए कहा जाता है जो गरीब किस्म का व्यक्ति होता है। उसके बेटे की शादी में घर के लोग ही सारा जिम्मा लिए रहते हैं क्योंकि किसी अन्य की खिदमत की उनकी हैसियत नहीं होती। सो, यहां भी कमेटी के लोग मंच पर आरूढ़ क्या हुए जैसे देश की बहुत बड़ी कुर्सी पर आरूढ़ हो गए हैं। संस्कारों की गरीबी यहां प्रायः देखी जाती है। ‘अंधा बाटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह के देई’ की स्थिति हरेक कार्यक्रमों में होती है। अपने लोग कुर्सी पकड़ लेते हैं तो राजनीतिज्ञों की तरह क्या मजाल कोई छुड़ा दे।

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