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सलील पांडेय

  • ‘पहले मतदान फिर जलपान’ स्लोगन गले से नीचे नहीं उतर रहा बहुतेरे वोटरों को?
  • लगता है कि पहले आसन, राशन तब भाषण का फार्मूला काम कर सकता है
  • पहले पेट-पूजा तब काम दूजा’ का लगा रहे नारा

खबरी पोस्ट नेशनल न्यूज नेटवर्क
मिर्जापुर। जिसका अनुमान था वही बात हो गई। तीन चरणों के बाद चौथे चरण में भी बड़े भाई वर्ष 2019 ने छोटे भाई वर्ष 2024 को लंगड़ी दांव से चित्त कर दिया और मतदान का प्रतिशत सोमवार, 13 मई को कम हो गया।
★’पहले जलपान तब मतदान’ से मोह खत्म होता दिख रहा -भारतीय समाज में अतिथि के स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाने के तौर-तरीकों में पहले आसन, राशन, उसके बाद हास-परिहास और मुस्कान के बाद भाषण का विधान है। राजनीति तो इस विधान को उल्टा टांग रही और पहले मतदान कह रही है जबकि ‘पेटपूजा’ के आगे ‘दूजा कुछ नहीं सूझता’ मानने वाले इससे नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं।
★मतदान के बाद जब जलपान अपने टेट से करना है तो महाज्ञान की क्या जरूरत? – पहले पेटपूजा के प्रस्तावक और समर्थक जो दलील देते हैं, वह भी अकाट्य है। यदि यह कहा जाता कि मतदान करने के बाद कोई अपने यहां जलपान के लिए बुलाए तब तो बात कुछ सुनहरी हो सकती है। जब अपने घर का ही माल चाभना है तो फिर ये जलपान ‘ना बाबा -ना’ की जरूरत ही क्या है?

बनो दिलदार और वोटर को डालो दाना

★ – वोटरों की ओर से जुमला आया कि जब वोट के बल पर अगले 5 साल तक जिसको हर जगह मुख्य अतिथि बनना है और लजीज़ व्यंजनों से साक्षात्कार स्वाभाविक रुप से होते रहना है तब मुख्य अतिथि के भाग्य- विधाताओं एवं निर्माताओं के साथ वही फार्मूला क्यों नहीं अपनाया जाता? पेट में भगवान शिव के प्रथम पूज्य देवता गणेशजी का वाहन चूहा उछलकूद मचाता रहेगा तब दिमाग कहाँ से काम करेगा ? चूहा भी ‘प्रथम पूज्य परंपरा का वाहक और पोषक है’। अतः इस सिद्धांत को नकारना भारतीय शिष्टाचार को ठेंगा दिखाना है, जिसकी जिम्मेदारी वोटरों के ऊपर डालना सांस्कृतिक संविधान के विरुद्ध है।
★नहीं है आचार संहिता के खिलाफ का लिहाफ – ऐसे वोटरों को बताया गया कि इस तरह ‘धुआंधार जलपान’ को कदाचार मान लिया जाएगा तब इस सिद्धांत के वोटरों ने कबीर दास के दोहे ‘पाथर पूजे हरि मिलें तो मैं पूजू पहाड़, घर की चकिया कोई न पूजे जेका पीसा खाय संसार’ का उदाहरण दिया है और कहा कि घर की चकिया का मतलब ‘घर के बाल-बच्चे और लाग-लुगाई’ समझिए। जब चुनाव आयोग की तिरछी नज़र में धूल झोंक कर मुर्ग-मुसल्लम और दारू-वारू चल सकता है तब ‘जलपान’ पर ही क़यामत क्यों?

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