चकिया से त्रिनाथ पांडेय की रिर्पोट

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खबरी पोस्ट नेशनल न्यूज नेटवर्क

चकिया‚चंदौली। हम वर्ष में दो बार हिंदी दिवस मनाते हैं । 14 सितंबर राष्ट्रीय हिन्दी दिवस और 10 जनवरी अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस । हम हिंदी दिवस भी mother day और father day की तरह मनाने लगे हैं । अर्थात् जैसे दिन पर दिन नए नए वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती ही जा रही है तो mother day और father day की नौटंकी भी व्यापक रूप से बढ़ती जा रही है । हम लोग mother day और father day अपने माता पिता के पास न मनाकर फेस बुक और व्हाट्स ऐप पर मनाते हैं उसी प्रकार हिंदी दिवस भी केवल सोशल मीडिया पर ही मना रहे हैं ।

मन , मस्तिष्क , विचारों, भावनाओं और संस्कारों को बाजार और उसके उत्पादों ने अपने अधीन कर लिया है । हम कहीं न कहीं बाजार के अधीन होकर मानसिक गुलाम बन चुके हैं ।

आज हम अन्य भाषाओं में अपनी हल्की भावनाओं और थोथे ज्ञान का कर रहे तुच्छ प्रदर्शन

कुछ ऐसी ही कहानी हमारे हिंदी की हो गई है । आज वास्तव में हम अपने माता पिता के समान ही हिंदी से भी प्यार नहीं करते । इसीलिए हम स्वयं को आधुनिक दिखाने के लिए अन्य भाषाओं में अपनी हल्की भावनाओं और थोथे ज्ञान का तुच्छ प्रदर्शन करते रहते हैं । वह तो भला हो उन अनपढ़ मजदूरों का जो देश भर में काम की तलाश में भटकते रहते हैं और चूंकि उन्हें अंग्रेजी या अन्य भाषा आती नहीं है इसलिए अनजाने ही हिंदी का प्रचार करते रहते हैं । अन्यथा तो हम पढ़े लिखे लोगों ने अपने माता पिता के समान ही हिंदी को भी अनाथ आश्रम में धकेल दिया है । आज दसवीं फेल व्यक्ति भी यदि चाट की दुकान भी खोलता है तो अपनी दुकान का प्रचार हिंदी की जगह अंग्रेजी संकेतों और चित्रों के माध्यम से करता है ।

हिंदी को पतन की ओर ले जाने में सबसे बड़ी भूमिका शासन और प्रशासन की

अधिक पढ़े लिखे लोगों की तो बात ही निराली है । उनका तो हर काम अंग्रेजी में ही होता है । हिंदी को पतन की ओर ले जाने में शासन और प्रशासन की भूमिका सबसे बड़ी है । हम उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक यदि न्याय के लिए जाएं तो और हमे केवल हिंदी ही आती हो तो हम समझ ही नहीं पाएंगे कि वार्ता किस बात पर हो रही है ? न्याय में क्या लिखा है ? क्योंकि हमारे न्याय में कुछ भी लिखा हो पर हमारी भाषा और भावनाओं की हत्या हो चुकी होती है । हमारे देश के नीति नियंता देश में जाति और धर्म की आग लगाने में ही मग्न हैं । उन्हें यह कौन समझाए कि किसी भी देश , समाज और भाषा का विकास वहां होने वाले नित नए अनुसंधानों और उनके फलस्वरूप होने वाले अन्वेषण पर निर्भर होता है । दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारे नेतागण हमारे प्राचीन भारतीय मनीषा के विपरीत अनुसंधान शालाओं के निर्माण के स्थान पर हमारे युवकों को नित नए धार्मिक मतभेदों में फसाकर पतन की ओर अग्रसर कर रहे हैं ।

हमारे विद्यार्थी और उनके अभिभावक अंग्रेजी ही सीखना और सिखाना चाहते हैं , क्योंकि उनको पता है कि चिकित्सा , प्रौद्योगिकी और वाणिज्य के क्षेत्र में आगे जाना है तो अंग्रेजी सीखना अति आवश्यक है

ऋषि परंपरा में हमारे युवक ऋषियों के अनुसंधानशालाओं में जाकर अध्ययन करते थे तो हमारे ज्ञान को सीखने के लिए देश विदेश के विद्यार्थी हमारे विद्यालयों में आते थे । हमारे ज्ञान को जानने के लिए वे हमारी भाषा सीखते थे । कालांतर में हम रूढ़िवादी होते चले गए । हमने विज्ञान को अस्वीकार करना शुरू कर दिया । परिणामस्वरूप हम प्रायः पराधीन होते चले गए । हारे हुए का ज्ञान कौन सीखना चाहेगा । आज हमारे विद्यार्थी और उनके अभिभावक अंग्रेजी ही सीखना और सिखाना चाहते हैं , क्योंकि उनको पता है कि चिकित्सा , प्रौद्योगिकी और वाणिज्य के क्षेत्र में आगे जाना है तो अंग्रेजी सीखना अति आवश्यक है । छोटे छोटे यूरोपीय और अमेरिकी देश अपने विज्ञान और वैज्ञानिक क्षमता के दम पर पूरी दुनिया पर राज करते आ रहे हैं ।

हमारे युवकों के भीतर देश और हिंदी भाषा का विकास कराना है तो हमें अपने अनुसंधानशालाओं को जागृत करना होगा । हमें एक बार पुनः अपने ऋषि परंपरा को आगे बढ़ाते हुए नित नए प्रयोग शाला और विज्ञान अनुसंधान शालाओं को विकसित करना होगा।

हम अपने बच्चों को मंदिर , मस्जिद , गुरुद्वारे और चर्च की ओर अग्रसर कर रहे हैं । वहां से हमारे बच्चे प्रेम की जगह ईर्ष्या और द्वेष की भाषा सीखकर बाहर आ रहे हैं । उसके बाद विदेशी बाजार और उसके उत्पादों के अधीन हो कर स्वयं का सर्वनाश कर ले रहे हैं । जिसका सबकुछ नष्ट भ्रष्ट हो चुका हो वह क्या अपना और अपनी भाषा का विकास करेगा।

लेखक कन्हैया लाल गुप्त प्राथमिक विद्यालय बराव में सहायक अध्यापक है‚जिनका अपने खुद का उद्गार है।

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