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सलिल पांडेय

  • पहली बार किसी महात्मा ने दक्षिणा से किया इनकार
  • प्रायः ‘भागते भूत की लँगोटी ही सही’ मुहावरा चरितार्थ होते देखा जाता है
  • जब तवायफ़ ने अपना उसूल बताया
  • मुझे नहीं, किसी जरूरतमंद की मदद का दिया महात्मा ने संदेश

खबरी पाेस्ट नेशनल न्यूज नेटवर्क

मिर्जापुर। महाराष्ट्र के पुणे के अति प्रसिद्ध आश्रम रामदरा मन्दिर से महात्मा मनुपुरी महाराज का आगमन नगर में हुआ। यहाँ कुछ क्षण रुकने के बाद उन्हें प्रयागराज के संगम में माघ माह के स्नान के लिए जाना था। टेलीफोनिक वार्ता के बाद वे आवास पर आए और रामदरा मन्दिर की महत्ता से अवगत कराया।
शनिवार, 17 फरवरी को तकरीबन एक घण्टे आध्यात्मिक चर्चा के बाद जब वे जाने लगे तब किसी महात्मा को विदा करते समय दक्षिणा देने की परंपरा के क्रम में 1100/- रुपए देना चाहा, तब उन्होंने कहा कि वे धन से वे संतृप्त है। ज्यादे की जरूरत नहीं है।

आर्थिक मदद जरूरतमंद को ही करना श्रेयष्कर

महात्मा मनुपुरी ने कहा कि समाज में हर स्तर के लोग रहते हैं। हर व्यक्ति चाहे वह धर्म क्षेत्र का हो या किसी भी क्षेत्र का, उसे अपनी मदद का मापदंड निर्धारित करना चाहिए। हमेशा हाथ फैलाना उचित नहीं।

सन्देश

लंबी अवधि से समाजिक गतिविधियों में भाग लेते हुए यह पहला दृश्य सामने आया जब किसी महात्मा ने इस तरह की बात कही । वरना धन के लिए रोते और हाथ फैलाते किसी भी स्तर तक उतरते लोग भी दिखाई पड़ते हैं। यह केवल धर्म क्षेत्र ही नहीं बल्कि सरकारी/गैरसरकारी/राजनीतिक/सामाजिक सभी क्षेत्रों में भारी धनराशि लेने वाले भी उस धनराशि का एक प्रतिशत भी कोई देता है तब उसे भी लपक कर ले लेते हैं।

स्व-मूल्यांकन जरूरी

प्रायः लोग स्वमूल्यांकन तो बहुत टॉप लेविल कर लेते हैं, यानी प्रथम श्रेणी ही नहीं बल्कि सुपर प्रथम श्रेणी का लेकिन रुपए-पैसे, सरकारी मदद, सरकारी अनाज/मकान/पेंशन के लिए अंत्योदय योजना के निरीहतम लोगों की लाइन में लगने में पीछे नहीं रहते।

लखनऊ की तवायफ़ और मुजरा

नगर के एक बड़े घराने के परिवार का एक युवक तकरीबन 45-50 साल पहले की एक घटना का जिक्र करते हुए बताया था कि लखनऊ की एक तवायफ़ ने उससे कहा था कि मुजरे का 1000/- कम नहीं लेती और स्टूडेंट से नहीं लेती।

प्रसंग यह है

प्रसंग के अनुसार एल एल बी करने गया उक्त युवक लखनऊ की किसी नामी-गिरामी तवायफ़ के कोठे पर गया। मुजरा सुनने के बाद 100/- जब उसे देना चाहा तब तवायफ़ ने पूछा कि क्या करते हो ? छात्र ने जब परिचय दिया तो वह बोल पड़ी कि 1000/- से कम नहीं लेती और स्टूडेंट से नहीं लेती। यानी तवायफ़ के भी हाथ फैलाने की सीमा-रेख तय थी जबकि कदम-कदम पर ऐसी भी स्थिति दिखाई देती है, जिस पर ‘भागते भूत की लंगोटी ही सही’ मुहावरा याद आना स्वाभाविक है।


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